क्यूँ शेर-ओ-शायरी को बुरा जानूँ 'मुसहफ़ी'
जिस शायरी ने आरिफ़-ए-कामिल किया मुझे
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कैसी फ़रफ़र ज़बान चलती है
बर्क़-ए-रुख़्सार-ए-यार फिर चमकी
ने ज़ख़्म-ए-ख़ूँ-चकाँ हूँ न हल्क़-ए-बुरीदा हूँ
जंगल में टेसू फूला और बाग़ में शगूफ़ा
'मुसहफ़ी' तू ने ज़ि-बस गुल के लिए हैं बोसे
चश्म ने की गौहर-अफ़्शानी सरीह
ने बुत है न सज्दा है ने बादा न मस्ती है
वो आहू-ए-रमीदा मिल जाए तीरा-शब गर
तसव्वुर तेरी सूरत का मुझे हर शब सताता है
सोते हैं हम ज़मीं पर क्या ख़ाक ज़िंदगी है
क़ासिद को उस ने जाते ही रुख़्सत किया था लेक
ख़ूब-रूयों की मोहब्बत से करें क्यूँ तौबा