क्या वो भी चाव-चूज़ के दिन थे कि जिन दिनों
गर्दन में मेरी यार का दस्त-ए-ख़मीदा था
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तौबा तो की है इश्क़ से पर इस का क्या इलाज
नसीबों से कोई गर मिल गया है
जब घर से वो बाद-ए-माह निकले
इस में आलम की सब आबादी ओ वीराना है
उस के कूचे की तरफ़ था शब जो दंगा आग का
अव्वल-ए-उम्र में देखा उसे जिस ने ये कहा
क़लक़-ए-दिल से हैं जैसे मिरे रुख़्सारे ज़र्द
मुफ़्लिस के दिए की सी तिरा दाग़-ए-दिल अपना
ख़ुदा की क़सम फिर तो क्या ख़ैर होवे
किस राह गया लैला का महमिल नहीं मालूम
रो के इन आँखों ने दरिया कर दिया
या-रब आबाद होवें घर सब के