क्या तअज्जुब है अगर फिर के हो अहया मेरा
कि मिरी क़ब्र पे आया है मसीहा मेरा
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अभी आग़ाज़-ए-मोहब्बत है कुछ इस का अंजाम
नसीम मुज़्तरिब-उल-हाल जाए थे पीछे
मातम में फ़ौत-ए-उम्र के रोता हूँ रात दिन
ये जो अपने हाथ में दामन सँभाले जाते हैं
बस तू ने अपने मुँह से जो पर्दा उठा दिया
मख़्लूक़ हूँ या ख़ालिक़-ए-मख़्लूक़-नुमा हूँ
कब शब-ए-वस्ल वो आया कि मिरे और उस के
कम है कुछ कुंदन से क्या चेहरे का उस के रंग-ए-ज़र्द
सोच दिन रात यही है तिरे दीवाने की
शायद कि किसी और से था वस्ल का वादा
मक़्तल-ए-यार में टुक ले तो चलो ऐ यारो
हम भी ऐ जान-ए-मन इतने तो नहीं नाकारा