क्या नाज़ुकी बदन की उस रश्क-ए-गुल के कहिए
मस्स-ए-हवा से जिस को होता है क़शअरीरा
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हैं यादगार-ए-आलम-ए-फ़ानी ये दिनों चीज़
ख़ाना-ए-दिल पे बिना अर्श की तू रख तो सही
उन को भी तिरे इश्क़ ने बे-पर्दा फिराया
शब शौक़ ले गया था हमें उस के घर तलक
जी से मुझे चाह है किसी की
कहिए जो झूट तो हम होते हैं कह के रुस्वा
गर ज़माने की अदावत है यही मुझ से तो मैं
'मुसहफ़ी' तू ने ज़ि-बस गुल के लिए हैं बोसे
नर्मी-ए-बालिश-ए-पर हम को नहीं भाती है
मज़े में अब तलक बैठा मैं अपने होंठ चाटूँ हूँ
यूँ चश्म-ए-तर से चेहरे पर आँसू हुए रवाँ
ख़्वाब था या ख़याल था क्या था