क्या किया उस का किसू ने बाग़ से जाती रही
सर दरख़्तों के हज़ारों बाद-ए-सरसर तोड़ कर
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जो मिला उस ने बेवफ़ाई की
वहीं थे शाख़-ए-गुल पर गुल जहाँ जम्अ
अदम वालों की सोहबत से भी नफ़रत हो गई अब तो
ईद तू आ के मिरे जी को जलावे अफ़्सोस
तू जिस के ख़्वाब में आया हो वक़्त-ए-सुब्ह सनम
शोख़ी-ए-हुस्न के नज़्ज़ारे की ताक़त है कहाँ
आना है यूँ मुहाल तो इक शब ब-ख़्वाब आ
ज़ख़्म है और नमक फ़िशानी है
रहने पे जो मस्जिद के मिरी शैख़ की बिगड़ी
अभी अपने मर्तबा-ए-हुस्न से मियाँ बा-ख़बर तू हुआ नहीं
हल्क़ा-ए-ज़ंजीर से निकला न ये पा-ए-जुनूँ
मसलख़-ए-इश्क़ में खिंचती है ख़ुश-इक़बाल की खाल