क्या काम किया तुम ने थी ये भी अदा कोई
पर्दे से निकल आना और जी में समा जाना
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ज़ि-बस ख़ून-ए-ग़लीज़ आँखों से आया
इक दिन तो लिपट जाए तसव्वुर ही से तेरे
अदम वालों की सोहबत से भी नफ़रत हो गई अब तो
शोख़ी-ए-हुस्न के नज़्ज़ारे की ताक़त है कहाँ
अब मुझ को गले लगाओ साहिब
ने ज़ख़्म-ए-ख़ूँ-चकाँ हूँ न हल्क़-ए-बुरीदा हूँ
हूँ शैख़ मुसहफ़ी का मैं हैरान-ए-शाएरी
हर चंद अमरदों में है इक राह का मज़ा
सीने के ज़ोर से भी मू भर नहीं उकसती
चश्म-ए-लैला का जो आलम है उन्हों की चश्म में
मैं तो समझूँगा जो समझाते हो मुझ को हर घड़ी
ढे जाने का कुछ घर के मुझे ग़म नहीं इतना