क्या जानिए चमन में क्या ताज़ा गुल खिला हो
आए हैं आग रख कर हम अपने आशियाँ में
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कभी वफ़ाएँ कभी बेवफ़ाइयाँ देखीं
खा लेते हैं ग़ुस्से में तलवार कटारी क्या
इस रंग से अपने घर न जाना
मैं निगाह-ए-पाक से देखे था तिरे हुस्न-ए-पाक को इस पे भी
होश उड़ जाएँगे ऐ ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ तेरे
की आह हम ने लेकिन उस ने इधर न देखा
खड़ा न सुन के सदा मेरी एक यार रहा
हम सनम दम तिरे इश्क़ का भर गए
ग़ज़ल ऐ 'मुसहफ़ी' ये 'मीर' की है
मुद्दत से हूँ मैं सर-ख़ुश-ए-सहबा-ए-शाएरी
'मुसहफ़ी' इस से भी रंगीं ग़ज़ल इक और लिखी
मैं उन मुसाफ़िरों में हूँ इस चश्म-ए-तर के हाथ