क्या बैठना क्या उठना क्या बोलना क्या हँसना
हर आन में काफ़िर की इक आन निकलती है
Mir Taqi Mir
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Jaun Eliya
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मत गोर-ए-ग़रीबाँ पर घोड़े को कुदाओ यूँ
उस के कूचे में सदा मुझ को नज़र आता है
इक जाम-ए-मय की ख़ातिर पलकों से ये मुसाफ़िर
तुझ से गर वो दिला नहीं मिलता
गर मज़ा चाहो तो कतरो दिल सरौते से मिरा
मक़्तल-ए-यार में टुक ले तो चलो ऐ यारो
मैं तो समझूँगा जो समझाते हो मुझ को हर घड़ी
ख़ाना-ए-दिल पे बिना अर्श की तू रख तो सही
शब-ए-हिज्राँ क्या सियाही न हुई रोज़-ए-सफ़ेद
बारा-वफ़ातें बीसवीं झड़ियाँ हैं सौ जगह
सरासर ख़जलत-ओ-शर्मिंदगी है
जो तू ऐ 'मुसहफ़ी' रातों को इस शिद्दत से रोवेगा