क्या अदा से आवे है दीवाना कर के सैर-ए-बाग़
फूल कानों में तो हैं ख़ार-ए-मुग़ीलाँ हाथ में
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यार होता है मिरा लाला-अज़ार एक न एक
जो दम हुक़्क़े का दूँ बोले कि ''मैं हुक़्क़ा नहीं पीता''
गर अब्र घिरा हुआ खड़ा है
वादों ही पे हर रोज़ मिरी जान न टालो
ले गया काजल चुरा दुज़्द-ए-हिना
मेरी सी तू ने गुल से न गर ऐ सबा कही
ग़ज़ल कहने का किस को ढब रहा है
इसी सबब तो परेशाँ रहा मैं दुनिया में
नज़रों में एक बोसा माँगा था हम ने उस से
ये कब ख़याल में लाते हैं ताज-ए-शाही को
जाँ-बर हो किस तरह तप-ए-सौदा से 'मुसहफ़ी'
शब में वाँ जाऊँ तो जाऊँ किस तरह