कुश्ता-ए-रंग-ए-हिना हूँ मैं अजब इस का क्या
कि मिरी ख़ाक से मेहंदी का शजर पैदा हो
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या थी हवस-ए-विसाल दिन रात
आतिश-ए-ग़म में बस कि जलते हैं
छुआ हो अगर मैं ने काकुल को तेरी
होश उड़ जाएँगे ऐ ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ तेरे
बात को मेरी अलग हो के न शरमाओ सुनो
कहती है नमाज़-ए-सुब्ह की बाँग
सुम्बुल को परेशान किया बाद-ए-सबा ने
लग रही है ख़ाना-ए-दिल को हमारे आग हाए
रंग-ए-बदन से उस के ये होता जल्वा-गर
क़ासिद जो गया मेरा ले नामा तो ज़ालिम ने
आँखों को फोड़ा डालूँ या दिल को तोड़ डालूँ
ये गुम हुए हैं ख़याल-ए-विसाल-ए-जानाँ में