जम्अ रखते नहीं, नहीं मालूम
गो मैं बुतों में उम्र को काटा तो क्या हुआ
मज़हब की मेरे यार अगर जुस्तुजू करें
जब इस में ख़ूँ रहा न तो ये दिल का आबला
कल क़ाफ़िला-ए-निक्हत-ए-गुल होगा रवाना
'मुसहफ़ी' हम तो ये समझे थे कि होगा कोई ज़ख़्म
था जो शेर-ए-रास्त सर्व-ए-बोसतान-ए-रेख़्ता
सच इश्क़ में हैं आशिक़ ओ माशूक़ बराबर
इस हवा में कर रहे हैं हम तिरा ही इंतिज़ार
छोड़ा न एक लहज़ा तिरी ज़ुल्फ़ ने ख़याल
ये क्या सुलूक किया तू ने मुझ से दस्त-ए-जुनूँ
सोते हैं हम ज़मीं पर क्या ख़ाक ज़िंदगी है