कुफ़्र फैला है यहाँ तक कि ज़माने में कोई
नाम लेता नहीं भूले से मुसलमानी का
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तदबीर मआश इस जा है शर्त-ए-ख़िरद-मंदी
अव्वल तो ये धज और ये रफ़्तार ग़ज़ब है
गो कि तू 'मीर' से हुआ बेहतर
नक़्शा है उन की चश्म में लैला की चश्म का
इश्क़-ए-फ़ुज़ूँ में मेरे न हो दोस्तो कमी
या थी हवस-ए-विसाल दिन रात
चली भी जा जरस-ए-ग़ुंचा की सदा पे नसीम
बिकते हैं शहर में गुल-ए-बे-ख़ार हर तरफ़
हो चुका नाज़ मुँह दिखाइए बस
इस हवा में कर रहे हैं हम तिरा ही इंतिज़ार
जान जानी है मिरी ऐ बुत-ए-कम-सिन तुझ पर
तरफ़ा आलम है हमारा भी कि हर दम उस से