कुफ़्र और दीं में तग़ायर नहीं गर देखिए ख़ूब
साथ तस्बीह के दानों के तो ज़ुन्नार भी है
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हर-चंद कि हो मरीज़-ए-मोहतात
मज़हब की मेरे यार अगर जुस्तुजू करें
शब-ए-हिज्र सहरा-ए-ज़ुल्मात निकली
तुझ को ऐ सय्याद काविश ही अगर मंज़ूर है
अव्वल तो तिरे कूचे में आना नहीं मिलता
सुल्ह-ए-कुल में मिरी गुज़रे है मोहब्बत के बीच
जो कि पेशानी पे लिक्खा है वही होता है
अपनी ग़रज़ को आए थे वो रात 'मुस्हफ़ी'
ब'अद-ए-मुर्दन की भी तदबीर किए जाता हूँ
ख़ाक-ए-बदन तिरी सब पामाल होगी इक दिन
और सरगर्म किया तेरी कशिश ने मुझ को
रक्खा है ठौर मुझ को कहरवे के नाच ने