कुछ टूटे फटे सीने को साथ अपने सफ़र में
क्या वो भी मुसाफ़िर जो न रक्खे सुई तागा
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काश सोता ही रहूँ मैं कि नहीं चाहता दिल
ख़्वाहिश-ए-वस्ल तो रखता हूँ बहुत जी में वले
हर रोज़ हमें घर से सहरा को निकल जाना
छुआ हो अगर मैं ने काकुल को तेरी
उस के दहान-ए-तंग में जा-ए-सुख़न नहीं
दिल सीने में बेताब है दिलदार किधर है
तीरथ समझ उस को वो गर अश्नान को आवे
आसाँ नहीं है तन्हा दर उस का बाज़ करना
रहने पे जो मस्जिद के मिरी शैख़ की बिगड़ी
यार होता है मिरा लाला-अज़ार एक न एक
पेच दे दे लफ़्ज़ ओ मअनी को बनाते हैं कुलफ़्त
इस क़दर भी तो मिरी जान न तरसाया कर