कुछ तो मिलता है मज़ा सा शब-ए-तन्हाई में
पर ये मालूम नहीं किस से हम-आग़ोश हूँ मैं
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जब घर से वो बाद-ए-माह निकले
ख़्वाहिश-ए-वस्ल का मज़मूँ जो किसी सत्र में था
आग़ोश की हसरत को बस दिल ही में मारुँगा
तरसा न मुझ को खींच के तलवार मार डाल
बंद भी आँखों को ज़री कीजिए
चश्म-ए-लैला का जो आलम है उन्हों की चश्म में
क्या जाने क्या करेगा ये दीदार देखना
क्यूँ नीची नज़रें कर लीं मियाँ ये तो तू बता
आँखें हैं जोश-ए-अश्क से पनघट
मैं जो कुछ हूँ सो हूँ क्या काम है इन बातों से
हम भी ऐ जान-ए-मन इतने तो नहीं नाकारा
सीने पे मेरे हर दम रखते हैं हाथ ख़ूबाँ