कुछ शेर-ओ-शायरी से नहीं मुझ को फ़ाएदा
इल्ला हुसूल-ए-काविश-ए-बे-जा-ए-ख़ल्क़ है
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गो मैं बुतों में उम्र को काटा तो क्या हुआ
ऐ 'मुस्हफ़ी' सद-शुक्र हुआ वस्ल मयस्सर
ज़ुल्मात-ए-शब-ए-हिज्र की आफ़ात है और तू
चले ले के सर पर गुनाहों की गठरी
पीछा किसी तरह ये मिरा छोड़ता नहीं
उस के कूचे में सदा मुझ को नज़र आता है
इतने महकूम-ए-बुताँ हैं जो ये काफ़िर चाहें
अज़-बस भला लगे है तू मेरे यार मुझ को
आँखें न चुरा 'मुसहफ़ी'-ए-रेख़्ता-गो से
क्या क्या बदन-ए-साफ़ नज़र आते हैं हम को
ले चली है जो दिल तो ज़ुल्फ़-ए-दराज़
हाल-ए-दिल-ए-बे-क़रार है और