कुछ इस क़दर नहीं सफ़र-ए-हस्ती-ओ-अदम
गर पाँव उठाइए तो ये अर्सा है दो क़दम
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कोई घर बैठे क्या जाने अज़िय्यत राह चलने की
मुख-फाट मुँह पे खाएँगे तलवार हो सो हो
बर्क़-ए-रुख़्सार-ए-यार फिर चमकी
दर तलक जाने की है उस के मनाही हम को
मैं ज़ुल्फ़ मुँह में ली तो कहा मार खाएगा
अमआ की परी माने-ए-पर्वाज़ है जिस तरह
सौ बार तुम तो सामने आ कर चले गए
गो कि तू 'मीर' से हुआ बेहतर
क्यूँ नीची नज़रें कर लीं मियाँ ये तो तू बता
कब शब-ए-वस्ल वो आया कि मिरे और उस के
क़लक़-ए-दिल से हैं जैसे मिरे रुख़्सारे ज़र्द
कौन कहता है कि फिर ख़ाक से उठते हैं शहीद