कूचा-ए-यार में रहने से नहीं और हुसूल
इश्क़ है मुझ को इक उस के दर-ओ-दीवार के साथ
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इस इमारत पर न कर मुनइम ग़ुरूर
मेरे और यार के पर्दा तो नहीं कुछ लेकिन
तू गोश-ए-दिल से सुने उस को गर बत-ए-बे-मेहर
पटरे धरे हैं सर पर दरिया के पाट वाले
मैं अजब ये रस्म देखी मुझे रोज़-ए-ईद-ए-क़ुर्बां
उन को भी तिरे इश्क़ ने बे-पर्दा फिराया
या थी हवस-ए-विसाल दिन रात
सर अपने को तुझ पर फ़िदा कर चुके हम
शिफ़ा नसीब मिरे क्यूँ के हो कि ऐ यारो
हर-चंद बहार ओ बाग़ है ये
दारुश्शफ़ा-ए-इश्क़ में ले जा के हम को इश्क़
ख़ुदा की क़सम फिर तो क्या ख़ैर होवे