कोई घर बैठे क्या जाने अज़िय्यत राह चलने की
सफ़र करते हैं जब रंज-ए-सफ़र मालूम होता है
Mir Taqi Mir
Habib Jalib
Jaun Eliya
Anwar Masood
Mohsin Naqvi
Rahat Indori
Wasi Shah
Faiz Ahmad Faiz
Javed Akhtar
Allama Iqbal
Ahmad Faraz
Parveen Shakir
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(306) Peoples Rate This
क्या क्या बदन-ए-साफ़ नज़र आते हैं हम को
न प्यारे ऊपर ऊपर माल हर सुब्ह-ओ-मसा चक्खो
क़लक़-ए-दिल से हैं जैसे मिरे रुख़्सारे ज़र्द
तुम्हारे हाथ को छोड़ूँ हूँ मैं कोई साहिब
ख़्वाब का दरवाज़ा कुइ मसदूद कर देता है रोज़
चश्म-ए-लैला का जो आलम है उन्हों की चश्म में
अपना रफ़ीक़-ओ-आश्ना ग़ैर-ए-ख़ुदा कोई नहीं
क्या खींचे है ख़ुद को दूर अल्लाह
पस-ए-क़ाफ़िला जो ग़ुबार था कोई उस में नाक़ा-सवार था
आस्तीं उस ने जो कुहनी तक चढ़ाई वक़्त-ए-सुब्ह
उस के मक़्तल में मिरा ख़ून बटा दस्त-ब-दस्त
तुम्हारे सामने क्या 'मुसहफ़ी' पढ़े अशआर