किसी जंगल के गुल-बूटे से जी मेरा बहल जाता
तिरे हाथों से आजिज़ हूँ नहीं तो मैं निकल जाता
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दामन-कशाँ वो जाए था सैर-ए-चमन को और
साबित तू रह जफ़ा पे मैं क़ाएम वफ़ा पे हूँ
टुकड़ा जहाँ गिरा जिगर-ए-चाक-चाक का
तौबा तो की है इश्क़ से पर इस का क्या इलाज
शब में वाँ जाऊँ तो जाऊँ किस तरह
मैं वो दोज़ख़ हूँ कि आतिश पर मिरी
सौ बार गया मैं उस के दर पर
उस गुल का पता गर नहीं देते हो तो यारो
जमुना में कल नहा कर जब उस ने बाल बाँधे
काम अज़-बस-कि ज़माने का हुआ है बर-अक्स
मारे हया के हम से वो कल बोलता न था
हाल-ए-दिल-ए-बे-क़रार है और