किश्वर-ए-दिल अब मकान-ए-दर्द-ओ-दाग़-ओ-यास है
इश्क़ के हाकिम ने बिठलाए हैं याँ थाने कई
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काफ़िर मुझे न कहियो ऐ मोमिनान-ए-सादिक़
दिल दुखा ही करे है सीने में
तू हम-दमों से जुदा रह कि टूट जाता है
मुसव्विरों ने क़लम रख दिए हैं हाथों से
मैं ने कहा था उस से अहवाल-ए-गिरिया अपना
दुख़्तर-ए-रज़ की हूँ सोहबत का मुबाशिर क्यूँ-कर
ख़ुर्शीद-रू हमारा जिस से मिलेगा हर सुब्ह
ज़ख़्म-ए-शमशीर-ए-निगह हैफ़ कि अच्छा न हुआ
शायद कि किसी और से था वस्ल का वादा
जिस बयाबान-ए-ख़तरनाक में अपना है गुज़र
कूचा-ए-ज़ुल्फ़ में फिरता हूँ भटकता कब का
मुज़्दा ऐ यास कि याँ कुंज-ए-क़फ़स के क़ैदी