किस ज़ुल्फ़-ए-सियह-फ़ाम के आई है मुक़ाबिल
है शम्अ के चेहरे पे असर चाँद-कुहन का
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क्या चमके अब फ़क़त मिरी नाले की शायरी
तुझ बिन तो कभी गुल के तईं बू न करूँ मैं
न समझो तुम कि मैं दीवाना वीराने में रहता हूँ
अब मिरी बात जो माने तो न ले इश्क़ का नाम
हो चुका नाज़ मुँह दिखाइए बस
गो मैं बुतों में उम्र को काटा तो क्या हुआ
किसी जंगल के गुल-बूटे से जी मेरा बहल जाता
हम-सफ़ीरों से सबा कहियो कि तुम में भी कभी
हरगिज़ किया न बाद-ए-ख़िज़ाँ का भी इंतिज़ार
ज़माने का चलन यकसाँ नहीं कुछ
काफ़िर मुझे न कहियो ऐ मोमिनान-ए-सादिक़
दर तलक जाने की है उस के मनाही हम को