किस के मजरूह गुलिस्ताँ में हैं मदफ़ूँ जो हनूज़
ग़ुंचे आते हैं नज़र सूरत-ए-पैकाँ मुझ को
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ज़माने का चलन यकसाँ नहीं कुछ
यूँ चश्म-ए-तर से चेहरे पर आँसू हुए रवाँ
आसाँ नहीं दरिया-ए-मोहब्बत से गुज़रना
सैल-ए-गिर्या का मैं ममनूँ हूँ कि जिस की दौलत
अब मिरी बात जो माने तो न ले इश्क़ का नाम
शब हम को जो उस की धुन रही है
बस तू ने अपने मुँह से जो पर्दा उठा दिया
भरी आती हैं हर घड़ी आँखें
चेहरे पे एक के भी न पाया वफ़ा का रंग
जानते आप से जुदा तुझ को
उस के कूचे में पुकारेगा अगर मुझ को रक़ीब
क़ासिद को उस ने जाते ही रुख़्सत किया था लेक