ख़्वाहिश-ए-वस्ल का मज़मूँ जो किसी सत्र में था
क्या कहूँ ख़त को मिरे पढ़ के वो क्या क्या उछला
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इधर से झाँकते हैं गह उधर से देख लेते हैं
क्या चमके अब फ़क़त मिरी नाले की शायरी
मैं किंगरा-ए-अर्श से पर मार के गुज़रा
अदम वालों की सोहबत से भी नफ़रत हो गई अब तो
यक नाला-ए-आशिक़ाना है याँ
बातों ने उस की हम को ख़ामोश कर दिया है
रुख़ से लहरा कर ज़नख़दाँ के हैं माइल मु-ए-ज़ुल्फ़
देखना कम-निगही कीजियो मत ऐ साक़ी
कहीं मग़्ज़ उस के मैं सुब्ह-दम तिरी बू-ए-ज़ुल्फ़-ए-रसा गई
गुल ही इस बाग़ से जाने पे नहीं बैठा कुछ
लुट के मंज़िल से कोई यूँ तो न आया होगा
मेहंदी के धोके मत रह ज़ालिम निगाह कर तू