ख़्वाब का दरवाज़ा कुइ मसदूद कर देता है रोज़
पड़ते हैं रातों को याँ ऐसे ही पत्थर ख़्वाब में
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क्या वो भी चाव-चूज़ के दिन थे कि जिन दिनों
ठठ की ठठ इतनी चली आती है ये काहे को
तड़ावे के लिए है ख़्वान पोश महर-ओ-मह नादाँ
जीता रहूँ कि हिज्र में मर जाऊँ क्या करूँ
ऐ शब हिज्र कहीं तेरी सहर है कि नहीं
'मुसहफ़ी' इस से भी रंगीं ग़ज़ल इक और लिखी
तेरी इस्मत में हमें शक नहीं ऐ माया-ए-नाज़
गुलशन में हवा से जो खुला यार का सीना
दम ग़नीमत है कि वक़्त-ए-ख़ुश-दिली मिलता नहीं
हरगिज़ किया न बाद-ए-ख़िज़ाँ का भी इंतिज़ार
ऐ 'मुसहफ़ी' अब चखियो मज़ा ज़ोहद का तुम ने
तसव्वुर तेरी सूरत का मुझे हर शब सताता है