ख़ुदा रक्खे ज़बाँ हम ने सुनी है 'मीर' ओ 'मिर्ज़ा' की
कहें किस मुँह से हम ऐ 'मुसहफ़ी' उर्दू हमारी है
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हर-चंद कि बात अपनी कब लुत्फ़ से ख़ाली है
ख़्वाब था या ख़याल था क्या था
दाग़-ए-पेशानी-ए-ज़ाहिद न गया जीते-जी
हर चंद अमर्दों में है इक राह का मज़ा
आतिश-ए-ग़म में बस कि जलते हैं
अज़-बस-कि जी है तुझ बिन बेज़ार ज़िंदगी से
जिस्म ने रूह-ए-रवाँ से ये कहा तुर्बत में
नहीं करती असर फ़रियाद मेरी
मरते मरते इसी बुत का मुझे कलमा पढ़ना
इतनी तो मुझ को सैर-ए-चमन की हवस न थी
मजनूँ कहानी अपनी सुनावे अगर मुझे
मुद्दत से हूँ मैं सर-ख़ुश-ए-सहबा-ए-शाएरी