ख़ुदा हम तो शब-ए-फ़िराक़ से मजबूर हो गए
इस शब को तू ही सुब्ह कर अब ऐ ख़दा-ए-सुब्ह
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शब मगर रह गई थोड़ी जो नज़र आता है
माह की आँख जो रहती है लगी ऊधर ही
ब'अद-ए-मुर्दन की भी तदबीर किए जाता हूँ
डाल कर ग़ुंचों की मुँदरी शाख़-ए-गुल के कान में
रात दिन गर्दिश में है पर हो नहीं सकता हनूज़
तेरी इस्मत में हमें शक नहीं ऐ माया-ए-नाज़
मियाँ सब्र-आज़माई हो चुकी बस
ऐ शब हिज्र कहीं तेरी सहर है कि नहीं
उन को भी तिरे इश्क़ ने बे-पर्दा फिराया
उम्र सय्याद की गुज़री इसी जासूसी में
गरचे तुम ताज़ा गुल-ए-गुलशन-ए-रानाई हो
दिल डूब गया टूट गया सब्र का लंगर