खावेंगे टाँके ज़ख़्म-ए-सर-ओ-रू पर ऐ तबीब
पर ज़ख़्म-ए-दिल तो हम से सिलाया न जाएगा
Mir Taqi Mir
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सर अपने को तुझ पर फ़िदा कर चुके हम
दाग़-ए-पेशानी-ए-ज़ाहिद न गया जीते-जी
ज़ि-बस ख़ून-ए-ग़लीज़ आँखों से आया
अव्वल तो थोड़ी थोड़ी चाहत थी दरमियाँ में
तौबा तो की है इश्क़ से पर इस का क्या इलाज
तू ने मुँह फेरा और उस का नूर सा जाता रहा
ने शहरियों में हैं न बयाबानियों में हम
शब-ए-विसाल कब आती है मेरे घर ऐ चर्ख़
क्या तअज्जुब है अगर फिर के हो अहया मेरा
मेहंदी के धोके मत रह ज़ालिम निगाह कर तू
जलता है जिगर तो चश्म नम है
उस के कूचे की तरफ़ था शब जो दंगा आग का