ख़ाना-ए-दिल पे बिना अर्श की तू रख तो सही
फैल जाती है इमारत में ज़मीं थोड़ी सी
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हर दम आते हैं भरे दीदा-ए-गिर्यां तुझ बिन
गुल ही इस बाग़ से जाने पे नहीं बैठा कुछ
क्यूँ नीची नज़रें कर लीं मियाँ ये तो तू बता
चमन को आग लगावे है बाग़बाँ हर रोज़
पैवस्ता गर्द-ए-दश्त रही गर तह-ए-दरूँ
हम से पाई नहीं जाती कमर उस की ऐ ज़ुल्फ़
कहती है नमाज़-ए-सुब्ह की बाँग
शायद कि किसी और से था वस्ल का वादा
तसव्वुर तेरी सूरत का मुझे हर शब सताता है
बंद भी आँखों को ज़री कीजिए
छुरियाँ चलीं शब दिल ओ जिगर पर
मर जाऊँगा मैं या वही जावेगा मुझे मार