ख़ाक-ए-आग़श्ता-ब-ख़ूँ को मिरी बे-क़द्र न जान
गुल-बदन सारे इसे करते हैं उबटन अपना
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सोते हैं हम ज़मीं पर क्या ख़ाक ज़िंदगी है
जीते अगर न हम तो क्यूँ ज़िल्लतें उठाते
परेशाँ क्यूँ न हो जावे नज़ारा
आता नहीं समझ में कि कहते हैं किस को इश्क़
दाग़-ए-दिल शब को जो बनता है चराग़-ए-दहलीज़
एक नाले पे है मआश अपनी
ग़ज़ल कहने का किस को ढब रहा है
होता है मुसाफ़िर को दो-राहे में तवक़्क़ुफ़
हरगिज़ न मुझ से साफ़ हुआ यार या नसीब
शब-ए-हिज्र का माजरा कोएले से
पीछे पड़ी हैं दिल के बे-तरह मेरी आँखें
उस बुत को नहीं है डर ख़ुदा से