कौन कहता है कि फिर ख़ाक से उठते हैं शहीद
सर उठा सकते हैं मारे तिरी तलवारों के
Ahmad Faraz
Jaun Eliya
Mohsin Naqvi
Anwar Masood
Gulzar
Faiz Ahmad Faiz
Rahat Indori
Allama Iqbal
Javed Akhtar
Habib Jalib
Wasi Shah
Mir Taqi Mir
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(336) Peoples Rate This
मर्ग की देखते ही शक्ल गए भाग हवास
क्या मैं जाता हूँ सनम छुट तिरे दर और कहीं
रात दिन गर्दिश में है पर हो नहीं सकता हनूज़
झुर्रियाँ क्यूँ न पड़ें उम्र-ए-फ़ुज़ूँ में मुँह पर
ये जो अपने हाथ में दामन सँभाले जाते हैं
आलम के मुरक़्क़ा को किया सैर मैं लेकिन
मख़्लूक़ हूँ या ख़ालिक़-ए-मख़्लूक़-नुमा हूँ
जो कि पेशानी पे लिक्खा है वही होता है
इस गोशा-ए-उज़्लत में तन्हाई है और मैं हूँ
नज़रों में एक बोसा माँगा था हम ने उस से
वही रातें आएँ वही ज़ारियाँ
है ईद का दिन आज तो लग जाओ गले से