कशिश ने इश्क़ की क्या काम कुछ किया थोड़ा
हज़ार बार तो राँझा को लाई हीर के घर
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दौलत-ए-फ़क़्र-ओ-फ़ना से हैं तवंगर हम लोग
एक नाले पे है मआश अपनी
रात दिन गर्दिश में है पर हो नहीं सकता हनूज़
ब'अद-ए-मुर्दन की भी तदबीर किए जाता हूँ
ये कब ख़याल में लाते हैं ताज-ए-शाही को
गर हो तमंचा-बंद वो रश्क-ए-फ़िरंगियाँ
'मुसहफ़ी' हर घड़ी जाया न करो तुम साहिब
सिधारी क़ुव्वत-ए-दिल ताब और ताक़त से कह दीजो
क्या जानिए किस किस को मैं याँ दी है अज़िय्यत
अव्वल तो थोड़ी थोड़ी चाहत थी दरमियाँ में
किसी के अक़्द में रहती नहीं है लूली दहर
मुँह छुपाओ न तुम नक़ाब में जान