काश सोता ही रहूँ मैं कि नहीं चाहता दिल
हर सहर उठ के रुख़-ए-गब्र-ओ-मुसलमाँ देखूँ
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शब में वाँ जाऊँ तो जाऊँ किस तरह
कहीं मग़्ज़ उस के मैं सुब्ह-दम तिरी बू-ए-ज़ुल्फ़-ए-रसा गई
दर्द-ओ-ग़म को भी है नसीबा शर्त
जम्अ रखते नहीं, नहीं मालूम
मिला है आशिक़ी में रुतबा-ए-पैग़म्बरी मुझ को
ना-अहल हम हैं वर्ना सरापा में यार के
शहर में मुझ से भड़कता था तसव्वुर तेरा
तुझ से गर वो दिला नहीं मिलता
उश्शाक़ का कुछ मैं ने आलम ही नया देखा
रातों को आँख उठा के ज़रा देख तो सही
राँझा यही कहता था इधर देखियो मजनूँ
मक़्तल-ए-यार में टुक ले तो चलो ऐ यारो