करता हूँ सवाल जिस के दर पर
आती है यही सदा कि फिर माँग
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चमन को आग लगावे है बाग़बाँ हर रोज़
आई जो रूह-ए-लैला ज़ियारत को क़ैस की
जो मिला उस ने बेवफ़ाई की
इश्क़-ए-फ़ुज़ूँ में मेरे न हो दोस्तो कमी
वहशत है मेरे दिल को तो तदबीर-ए-वस्ल कर
कहते हो एक-आध की है मेरे हाथों मौत
चराग़-ए-हुस्न-ए-यूसुफ़ जब हो रौशन
देखें तो क्यूँकर वो काफ़िर दर तक अपने न आवेगा
मख़्लूक़ हूँ या ख़ालिक़-ए-मख़्लूक़-नुमा हूँ
चीन-ए-पेशानी न दिखलाओ मैं हूँ नाज़ुक-मिज़ाज
मैं कर के चला बातें और उस शोख़ ने वोहीं
जिस को कहते हैं अरसा-ए-हस्ती