कर के सदक़े रख दिया दिल यूँ मैं उस की राह में
जैसे चौराहे में रखते हैं उतारे का चराग़
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वादों ही पे हर रोज़ मिरी जान न टालो
किस ज़ुल्फ़-ए-सियह-फ़ाम के आई है मुक़ाबिल
साया-ए-दीवार जो रोज़-ए-क़यामत में न था
दिन को है सहरा-नवर्दी से हमें काम ऐ रफ़ीक़
इस में आलम की सब आबादी ओ वीराना है
इक हाल हो तो यारो उस का बयाँ करें हम
ऐ इश्क़ तेरी अब के वो तासीर क्या हुई
जीते अगर न हम तो क्यूँ ज़िल्लतें उठाते
ऐ 'मुसहफ़ी' गावे ये ग़ज़ल मेरी जो राँझा
उस्ताद कोई ज़ोर मिला क़ैस को शायद
मैं तरह डालूँ अगर सोच कर कहीं घर की
कभू तक के दर को खड़े रहे कभू आह भर के चले गए