कम है कुछ कुंदन से क्या चेहरे का उस के रंग-ए-ज़र्द
इश्क़ कर के 'मुसहफ़ी' तू कीमिया-गर हो गया
Rahat Indori
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इस नाज़नीं की बातें क्या प्यारी प्यारियाँ हैं
गर ख़ाक से हमारी पुतला कोई बनावे
मैं किस क़तार में हूँ जहाँ मुझ से सैकड़ों
ये जो अपने हाथ में दामन सँभाले जाते हैं
तख़्ता-ए-आब-ए-चमन क्यूँ न नज़र आवे सपाट
ऐसे डरे हैं किस की निगाह-ए-ग़ज़ब से हम
है ईद का दिन आज तो लग जाओ गले से
सज्दा करता हूँ मैं मेहराब समझ कर उस को
दिलबर की तमन्ना-ए-बर-ओ-दोश में मर जाए
कुफ़्र फैला है यहाँ तक कि ज़माने में कोई
'मुसहफ़ी' मैं हूँ अब और जामा-ए-उर्यानी है
गर ये आँसू हैं तो लाख आवेंगे दरिया जोश में