कैसी फ़रफ़र ज़बान चलती है
उस की गुफ़्तार-ए-बे-ख़तर को देख
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वाँ रसाई ही नहीं मजनून-ए-सहरा-गर्द की
लाख हम शेर कहें लाख इबारत लिक्खें
बिकते हैं शहर में गुल-ए-बे-ख़ार हर तरफ़
कहूँ तो किस से कहूँ अपना दर्द-ए-दिल मैं ग़रीब
दिल ले गया है मेरा वो सीम-तन चुरा कर
बस तू ने अपने मुँह से जो पर्दा उठा दिया
रेख़्ता-गोई की बुनियाद 'वली' ने डाली
ये कब ख़याल में लाते हैं ताज-ए-शाही को
चीन-ए-पेशानी न दिखलाओ मैं हूँ नाज़ुक-मिज़ाज
या-रब कभी वो दिन हो कि ख़ल्वत में वो सनम
रखता है क़दम नाज़ से जिस दम तू ज़मीं पर
मुझ को पामाल कर गया है वही