कैसा ये दिन है जो नहीं लाता है रू-ब-शाम
कैसी ये शब है जिस की सहर ना-पदीद है
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रोज़-ए-विसाल जिस को कहती है ख़ल्क़ वो ही
तेरी इस्मत में हमें शक नहीं ऐ माया-ए-नाज़
तिरे मुँह छुपाते ही फिर मुझे ख़बर अपनी कुछ न ज़री रही
मुवाफ़क़त हो जो ताले की उस की मज्लिस में
मैं किस क़तार में हूँ जहाँ मुझ से सैकड़ों
कुछ इस क़दर नहीं सफ़र-ए-हस्ती-ओ-अदम
ऐसे डरे हैं किस की निगाह-ए-ग़ज़ब से हम
दिल ही दिल में याँ मोहब्बत अपना घर करती रही
बस बहुत ज़ब्त-ए-ग़म-ए-इश्क़ किया
मैं ने क्या और निगह से तिरे रुख़ को देखा
जब इस में ख़ूँ रहा न तो ये दिल का आबला
उस बुत को नहीं है डर ख़ुदा से