कहते हो एक-आध की है मेरे हाथों मौत
हम भी समझते हैं ये सुनाते हो हम को क्या
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मुद्दत से हूँ मैं सर-ख़ुश-ए-सहबा-ए-शाएरी
होंटों तक आते आते हुई वो भी सर्द आह
फिर आई ज़ुल्फ़-ए-मुसलसल की लहर पेश-ए-नज़र
समझ ले आशिक़ ओ माशूक़ की हम-आग़ोशी
ज़ालिम ख़ुदा के वास्ते बैठा तो रह ज़रा
यार हैं चीं-बर-जबीं सब मेहरबाँ कोई नहीं
उस बुत को नहीं है डर ख़ुदा से
सरासर ख़जलत-ओ-शर्मिंदगी है
जब घर से वो बाद-ए-माह निकले
भरी आती हैं हर घड़ी आँखें
मुँह में जिस के तू शब-ए-वस्ल ज़बाँ देता है
ख़्वाहिश-ए-वस्ल तो रखता हूँ बहुत जी में वले