कहिए जो झूट तो हम होते हैं कह के रुस्वा
सच कहिए तो ज़माना यारो नहीं है सच का
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Rahat Indori
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छेड़े है उस को ग़ैर तो कहता है उस से यूँ
कल सू-ए-ग़ैर उस ने कई बार की निगाह
गर ख़ाक से हमारी पुतला कोई बनावे
उस के दर पर मैं गया साँग बनाए तो कहा
मैं निगाह-ए-पाक से देखे था तिरे हुस्न-ए-पाक को इस पे भी
रुख़ ज़ुल्फ़ में बे-नक़ाब देखा
मुझ को ये सोच है जीते हैं वे क्यूँ-कर या-रब
मैं ने कहा था उस से अहवाल-ए-गिरिया अपना
कभी वफ़ाएँ कभी बेवफ़ाइयाँ देखीं
चराग़-ए-हुस्न-ए-यूसुफ़ जब हो रौशन
वो आहू-ए-रमीदा मिल जाए तीरा-शब गर
ख़ुश-तालई में शम्स ओ क़मर दोनों एक हैं