कहीं देखा है इस हैअत का माशूक़
नज़र कीजो मुस्लिमानाँ! ख़ुदा-रा
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जान को जैसे निकाले है कोई क़ालिब से
बातें कई ज़बानी मैं ने कही हैं उस से
ख़ुदा हम तो शब-ए-फ़िराक़ से मजबूर हो गए
सुम्बुल को परेशान किया बाद-ए-सबा ने
रहमत तिरी ऐ नाक़ा-कश-ए-महमिल-ए-हाजी
छुरियाँ चलीं शब दिल ओ जिगर पर
इस गोशा-ए-उज़्लत में तन्हाई है और मैं हूँ
मुल्हिद हूँ अगर मैं तो भला इस से तुम्हें क्या
मैं ने कहा था उस से अहवाल-ए-गिरिया अपना
अज़-बस भला लगे है तू मेरे यार मुझ को
वो आप कर रही है मुदाम उस की जुस्तुजू
नसीम-ए-सुब्ह-ए-चमन से इधर नहीं आती