काफ़िर मुझे न कहियो ऐ मोमिनान-ए-सादिक़
करता हूँ बुत को सज्दा मैं तो ख़ुदा समझ कर
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शिफ़ा नसीब मिरे क्यूँ के हो कि ऐ यारो
सज्दा करता हूँ मैं मेहराब समझ कर उस को
चीन-ए-पेशानी न दिखलाओ मैं हूँ नाज़ुक-मिज़ाज
इतनी तो मुझ को सैर-ए-चमन की हवस न थी
मुझ को ये सोच है जीते हैं वे क्यूँ-कर या-रब
क्या अदा से आवे है दीवाना कर के सैर-ए-बाग़
पीछे फिर फिर देखता जाता हूँ और भागूँ हूँ मैं
जाड़ों में है ये रंग कि अपने लिहाफ़ के
रखें हैं जी में मगर मुझ से बद-गुमानी आप
ऐ फ़लक तुझ को क़सम है मिरी इस को न बुझा
न पूछ इश्क़ के सदमे उठाए हैं क्या क्या
नसीम-ए-सुब्ह-ए-चमन से इधर नहीं आती