काबा ओ दैर में ढूँडे जो कहीं ले के चराग़
तुझ सा काफ़िर न मिले और न मुसलमाँ मुझ सा
Allama Iqbal
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गर रहूँ शहर में हो दूद के बाइस ख़फ़क़ाँ
हरगिज़ किया न बाद-ए-ख़िज़ाँ का भी इंतिज़ार
इस गोशा-ए-उज़्लत में तन्हाई है और मैं हूँ
तुम्हारे सामने क्या 'मुसहफ़ी' पढ़े अशआर
तौबा तो की है इश्क़ से पर इस का क्या इलाज
उस गली में जो हम को लाए क़दम
रंग-ए-बदन से उस के ये होता जल्वा-गर
माइल-ए-गिर्या मैं याँ तक हूँ कि आज़ा पे मिरे
फ़हमीदा है जो तुझ को तो फ़हमीद से निकल
नख़्ल लाले जा जब ज़मीं से उठा
है रोज़-ए-पंज-शम्बा तू फ़ातिहा दिला दे
दूर से मुझ को न मुँह अपना दिखाओ जाओ