कब शब-ए-वस्ल वो आया कि मिरे और उस के
दरमियाँ में शब-ए-हिज्राँ का फ़साना न रहा
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अक़्ल गई है सब की खोई क्या ये ख़ल्क़ दिवानी है
ज़ख़्म है और नमक फ़िशानी है
इक हर्फ़-ए-कुन में जिस ने कौन-ओ-मकाँ बनाया
तुम्हारे हाथ को छोड़ूँ हूँ मैं कोई साहिब
जमुना में कल नहा कर जब उस ने बाल बाँधे
क़िस्मत इक शब ले गई मुझ को जो बाग़-ए-वस्ल में
क्या अदा से आवे है दीवाना कर के सैर-ए-बाग़
जिस्म ने रूह-ए-रवाँ से ये कहा तुर्बत में
'मुसहफ़ी' शिर्क भी ऐसे का नहीं यार बुरा
होश उड़ जाएँगे ऐ ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ तेरे
गो भूल गया हूँ मैं तुझे तो भी तिरा रंग
कहिए जो झूट तो हम होते हैं कह के रुस्वा