जो शम्अ है काबे की वही नूर का शोअ'ला
क़िंदील-ए-सनम-ख़ाना की मेहराब में चमका
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माह की आँख जो रहती है लगी ऊधर ही
नसीबों से कोई गर मिल गया है
गर अब्र घिरा हुआ खड़ा है
दिल के नगर में चार तरफ़ जब ग़म की दुहाई बैठ गई
नसीम-ए-सुब्ह-ए-चमन से इधर नहीं आती
राँझा यही कहता था इधर देखियो मजनूँ
आसाँ नहीं है तन्हा दर उस का बाज़ करना
सरासर ख़जलत-ओ-शर्मिंदगी है
अव्वल तो थोड़ी थोड़ी चाहत थी दरमियाँ में
जब से साने ने बनाया है जहाँ का बहरूप
आदमी से आदमी की जब न हाजत हो रवा
हर्बा है आशिक़ों का फ़क़त आह-ए-पेचदार