जो शैख़-ए-शहर आया हम से औबाशों की मज्लिस में
अगर धूलें नहीं तो गालियाँ दो-चार खा निकला
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क़ैस मिले तो उस से पूछूँ क्या तिरे जी में आई दिवाने
है मौसम-ए-बहार का आग़ाज़ क़हर है
ज़ुल्फ़ों का बिखरना इक तो बला, आरिज़ की झलक फिर वैसी ही
चाक करता है अभी जामा-ए-उर्यानी को
तन्हा न वो हाथों की हिना ले गई दिल को
शब हम को जो उस की धुन रही है
जानते आप से जुदा तुझ को
मेहनत पे टुक नज़र कर सूरत गर अज़ल ने
जान को जैसे निकाले है कोई क़ालिब से
किस ज़ुल्फ़-ए-सियह-फ़ाम के आई है मुक़ाबिल
अल्लाह-रे तेरे सिलसिला-ए-ज़ुल्फ़ की कशिश
बद-गुमानी ने मुझे क्या क्या सताया क्या कहूँ