जो मिला उस ने बेवफ़ाई की
कुछ अजब रंग है ज़माने का
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अब मिरी बात जो माने तो न ले इश्क़ का नाम
घटती है शब-ए-वस्ल तो कहता हूँ मैं या-रब
भरी आती हैं हर घड़ी आँखें
अमआ की परी माने-ए-पर्वाज़ है जिस तरह
यारान-ए-सुख़न-गो की है वो कंपनी अपनी
मादर-ए-दहर उठाती है जो हर दम मिरे नाज़
गरचे तुम ताज़ा गुल-ए-गुलशन-ए-रानाई हो
सुन्नी ओ शीआ के क़ज़िए में है हैराँ मिरी अक़्ल
आशिक़ कहें हैं जिन को वो बे-नंग लोग हैं
अपनी तो इस चमन में नित उम्र यूँही गुज़री
ज़माने का चलन यकसाँ नहीं कुछ
गर समझते वो कभी मअनी-ए-मत्न-ए-क़ुरआँ