जो कि पेशानी पे लिक्खा है वही होता है
नहीं होतीं कभी इक शख़्स की तक़दीरें दो
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जी में है इतने बोसे लीजे कि आज
जाड़ों में है ये रंग कि अपने लिहाफ़ के
ख़्वाब था या ख़याल था क्या था
ऐसी आज़ुर्दगी क्या थी हमें इस कूचे से
नज़रों में एक बोसा माँगा था हम ने उस से
शैख़ काबे को तू जा जाऊँ मैं बुत-ख़ाने को
यार हैं चीं-बर-जबीं सब मेहरबाँ कोई नहीं
जब से साने ने बनाया है जहाँ का बहरूप
गर और भी मिरी तुर्बत पे यार ठहरेगा
इस गुलशन-ए-पुर-ख़ार से मानिंद-ए-सबा भाग
ए'तिबारात हैं ये हस्ती-ए-मौहूमी के
ने बुत है न सज्दा है ने बादा न मस्ती है