जिस्म-ए-ख़ाकी को बनाया लाग़री ने ऐन-रूह
ग़र्क़-ए-आब-ए-बहर कट कट कर ये साहिल हो गया
Habib Jalib
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मुज़्दा ऐ यास कि याँ कुंज-ए-क़फ़स के क़ैदी
महरूम है नामा-दार-ए-दुनिया
मेरे दिल-ए-शिकस्ता को कहती है देख ख़ल्क़
या-रब मिरी उस बुत से मुलाक़ात कहीं हो
रात दिन तू है मिरी आग़ोश में
करता हूँ सवाल जिस के दर पर
'मुसहफ़ी' तू ने ज़ि-बस गुल के लिए हैं बोसे
यूँ है डलक बदन की उस पैरहन की तह में
ऐ इश्क़ तेरी अब के वो तासीर क्या हुई
घर में बाशिंदे तो इक नाज़ में मर जाते हैं
इक दर्द-ए-मोहब्बत है कि जाता नहीं वर्ना
अब मिरी बात जो माने तो न ले इश्क़ का नाम