जिस्म ने रूह-ए-रवाँ से ये कहा तुर्बत में
अब मुझे छोड़ के तन्हा तू कहाँ जाती है
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ऐ 'मुसहफ़ी' तू इन से मोहब्बत न कीजियो
अभी आग़ाज़-ए-मोहब्बत है कुछ इस का अंजाम
एक नाले पे है मआश अपनी
वो दर तलक आवे न कभी बात की ठहरे
लैला चली थी हज के लिए जज़्ब-ए-इश्क़ से
है माह कि आफ़्ताब क्या है
ले क़ैस ख़बर महमिल-ए-लैला तो न होवे
वादा-ए-वस्ल दिया ईद की शब हम को सनम
हम भी ऐ जान-ए-मन इतने तो नहीं नाकारा
सोहबत है तिरे ख़याल के साथ
चाहता हूँ उस को मैं वो चाहता मुझ को नहीं
ऐ 'मुसहफ़ी' तुर्बत का मिरी नाम न लेना